Thursday, October 16, 2014
Tuesday, September 2, 2014
Saturday, August 16, 2014
Friday, July 11, 2014
गुरू पूर्णिमा
गुरू पूर्णिमा
भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत ऊंचा स्थान है। माता-पिता के समान गुरु का भी बहुत आदर रहा है और वे शुरू से ही पूज्य समझे जाते रहे है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान समझ कर सम्मान करने की पद्धति पुरातन है। 'आचार्य देवोभव:' का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है। गुरु पूजा के लिए आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को यह विशेष पर्व मनाया जाता है।
गुरु अपने आप में पूर्ण होते हैं। अत: पूर्णिमा को उनकी पूजा का विधान स्वाभाविक है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को हरिशयनी एकादशी होती है। ऐसी मान्यता है कि हरिशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता चार मास के लिए सो जाते है। इसलिए हरिशयनी एकादशी के बाद पथ प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है।
पथ प्रदर्शक है गुरु!
परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते है। इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध है। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तदनुकूल उज्जवल और उदात्त हुआ करती थी। सादा जीवन, उच्च विचार गुरुजनों का मूल मंत्र था। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय था। लोक हित के लिए आपने जीवन का बलिदान कर देना शिक्षा का आदर्श है।
प्राचीन काल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह का ज्ञान देते थे लेकिन आज वक्त बदल गया है। आजकल विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा देने वाले शिक्षक को और लोगों अध्यात्मिक ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता है। शिक्षक कई हो सकते है लेकिन गुरु एक ही होते है। हमारे धर्मग्रंथों में गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी अमृत का संचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे वही गुरु है। यह जरूरी नहीं है कि हम किसी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाएं। योग दर्शन नामक पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण को जगत गुरु कहा गया है क्योंकि महाभारत के युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था।
माता-पिता केवल हमारे शरीर की उत्पत्ति के कारण है लेकिन हमारे जीवन को सुसंस्कृत करके उसे सर्वाग सुंदर बनाने का कार्य गुरु या आचार्य का ही है। इसी कृतज्ञता की भावना से गुरु का पूजन करने तथा उन्हे संतुष्ट करने का विधान है।
व्रत का विधान
इसी उदात्त परंपरा की याद दिलाने के लिए वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा आती है। यह आषाढ़ी पूर्णिमा को मनाई जाती है। वैसे तो प्रतिदिन देवतुल्य गुरु की पूजा करनी चाहिए, उनमें सदा श्रद्धा, भक्ति रखनी चाहिए किंतु पूर्णिमा के दिन गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति का प्रदर्शन विशेष रूप से करना चाहिए। इस दिन प्रात:काल शांत चित्त से अपने गुरु का स्मरण करते हुए गुरु पूर्णिमा व्रत का संकल्प करें। इस दिन अपने गुरु के पास जाकर उनका अर्चन, वंदन और सम्मान करना चाहिए। इस दिन अपने गुरु से आशीर्वाद, उपदेश और भविष्य के लिए निर्देश ग्रहण करना चाहिए। यदि आपके गुरु आपसे दूर रहते हों या दिवंगत हों या आपने भगवान को ही अपना गुरु मान लिया हो तो उनके चित्र या पादुका को उच्च स्थान पर रख कर, लाल, पीला और सफेद तीन रंगों के कपड़े बिछाकर विराजित करे, लाल स्नेह, पीला समृद्धि और श्वेत शांति का प्रतीक है। ये तीनों ही जीवन में परम आवश्यक है। गुरु के चित्र या पादुका को धूप, दीप, पुष्प, अक्षत, चंदन, नैवेद्य आदि से पूजन करे। गुरु स्त्रोत का पाठ करे और श्रद्धापूर्वक गुरु का स्मरण करे।
वेद व्यास जी ने वेद, उपनिषद् और पुराणों का प्रणयन किया है। इसलिए वेद व्यास जी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि वेद व्यास जी का जन्म भी इसी दिन हुआ था । इसलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहते है। आज के दिन व्यास जी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित शास्त्रों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए।
वेद व्यास जी की रचनाओं में महाभारत सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसे पांचवां वेद भी कहा जाता है। यह मानव जाति और समाज का वृहत विश्व-कोश है। विश्वविख्यात श्रीमद्भागवत गीता महाभारत के ही अंग रूप में है। आज के दिन इसी महान ग्रंथ के रचयिता व्यास जी का नमन और पूजन किया जाता है।
इसे विदेशों में भी श्रद्धा से मनाते हैं
Monday, June 30, 2014
नाग पंचमी पूजा
नाग पंचमी के दिन उपवास रख, पूजन करना कल्याणकारी कहा गया है. श्रवण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन नाग पंचमी का पर्व प्रत्येक वर्ष श्रद्धा और विश्वास से मनाया जाता है. इस दिन के विषय में कई दंतकथाएं प्रचलित है.
पूजन विधि
नाग पंचमी के दिन प्रातःकाल उठकर घर की सफाई कर नित्यकर्म से निवृत्त हो जाएं. उसके बाद स्नान कर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करें. पूजन के लिए सेवई-चावल आदि ताजा भोजन बनाए. कुछ भागों में नागपंचमी से एक दिन भोजन बना कर रख लिया जाता है और नागपंचमी के दिन बासी खाना खाया जाता है.
इसके बाद दीवाल पर गेरू पोतकर पूजन का स्थान बनाएं फिर कच्चे दूध में कोयला घिसकर उससे गेरू पुती दीवाल पर घर जैसा बनाएं और उसमें अनेक नागदेवों की आकृति बनाएं. कुछ जगहों पर सोने, चांदी, काठ व मिट्टी की कलम तथा हल्दी व चंदन की स्याही से अथवा गोबर से घर के मुख्य दरवाजे के दोनों बगलों में पांच फन वाले नागदेव अंकित कर पूजते हैं.
सर्वप्रथम नागों की बांबी में एक कटोरी दूध चढ़ाएं और फिर दीवाल पर बनाए गए नागदेवता की दूध, दूब, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, जल, कच्चा दूध, रोली और चावल आदि से पूजन करें. सेवई व मिष्ठान से उनका भोग लगाएं. नाग देवता को
चंदन की सुगंध विशेष प्रिय होती है, इसलिए पूजा में चंदन का प्रयोग करना चाहिए. इस दिन की पूजा में सफेद कमल का प्रयोग किया जाता है. पूजा के बाद आरती करें.
नागदेवता को प्रसन्न करने के लिए इस मंत्र का जाप करें. इस मंत्र की तीन माला जप करने से नाग देवता प्रसन्न होते हैं. इस मंत्र का जाप करने से ‘कालसर्प योग' के अशुभ प्रभाव में भी कमी आती है
और पांच नाग कथा
एक अन्य कथा के अनुसार एक राजा के सात पुत्र थे, सभी का विवाह हो चुका था. उनमें से छ: पुत्रों के यहां संतान भी जन्म ले चुकी थी परन्तु सबसे छोटे की संतान प्राप्ति की इच्छा अभी पूरी नहीं हुई थी. संतानहीन होने के कारण उन दोनों को घर-समाज में तानों का सामना करना पड़ता था. समाज की बातों से उसकी पत्नी परेशान हो जाती थी परन्तु पति यही कहकर समझाता था कि संतान होना या न होना तो भाग्य के अधीन है.
इसी प्रकार उनकी जिन्दगी के दिन किसी तरह से संतान की प्रतीक्षा करते हुए गुजर रहे थे. एक दिन श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि थी. इस तिथि से पूर्व की रात्रि में उसे रात में स्वप्न में पांच नाग दिखाई दिए. उनमें से एक ने कहा की अरे पुत्री! कल नागपंचमी है, इस दिन तू अगर पूजन करे, तो तुझे संतान की प्राप्ति हो सकती है.
प्रात:काल उसने स्वप्न की बात अपने पति को सुनाया, पति ने कहा कि जैसे स्वप्न में देखा है, उसी के अनुसार नागों का पूजन कर देना. उसने उस दिन व्रत कर नागों का पूजन किया और समय आने पर उसे संतान सुख की प्राप्ति हुई.
इस दिन के विषय में कई दंतकथाएं प्रचलित है जिनमें से कुछ कथाएं इस प्रकार है. इन में से किसी कथा का स्वयं पाठ या श्रवण करना शुभ रहता है. साथ ही विधि-विधान से नागों की पूजा भी करनी चाहिए.
विनायक चतुर्थी वर्त
विनायक चतुर्थी व्रत
सनातन धर्म में प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश हैं । इसीलिए हिंदू पूजा-पाठों में विनायक चतुर्थी का सबसे ज्यादा महत्व है। हिंदू धर्मशास्त्रों और ज्योतिष विज्ञान के अनुसार चतुर्थी तिथि के स्वामी भगवान श्री गणेश हैं।
हिन्दू कैलेण्डर में प्रत्येक चन्द्र मास में दो चतुर्थी होती है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार चतुर्थी तिथि भगवान गणेश की तिथि है। अमावस्या के बाद आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहते हैं और पूर्णिमा के बाद आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहते हैं।
हालाँकि विनायक चतुर्थी का व्रत हर महीने में होता है लेकिन सबसे मुख्य विनायक चतुर्थी का व्रत भाद्रपद के महीने में होता है। भाद्रपद के दौरान पड़ने वाली विनायक चतुर्थी को गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण विश्व में गणेश चतुर्थी को भगवान गणेश के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।
इसलिए हिंदू पंचांग के हर माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी पर प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश की आराधना को समर्पित विनायकी चतुर्थी का व्रत रखा जाता है। यह चतुर्थी व्रत वरद विनायकी चतुर्थी के नाम से भी जाना जाता है। इस व्रत के नाम से ही इस व्रत का फल भी स्पष्ट हो जाता है। वरद का अर्थ होता है -वर देने वाला यानि मनोरथ पूरे करने वाला और विनायक भगवान श्री गणेश का ही नाम है। जिसका शाब्दिक अर्थ होता है विघ्न हरने वाले नायक, जो गणपति कहलाते हैं। इस प्रकार विनायकी चतुर्थी का व्रत करने से हर व्यक्ति की कामनाएं पूरी होती है और विघ्न-बाधाएं दूर होती है। व्यवहारिक रुप से देखें तो जीवन में इच्छाओं की पूर्ति और विघ्नों को दूर करने के लिए बुध्दि और विवेक की आवश्यकता होती है। भगवान श्री गणेश बुध्दि प्रदान करने वाले देवता भी हैं। अत: यह व्रत बुध्दि की शुध्दि की दृष्टि से भी महत्व रखता है। इस तिथि पर मध्यान्ह के समय भगवान श्री गणेश का शास्त्रोक्तविधि-विधान से पूजा, आराधना करना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार नियम-संयम से व्रत करने पर व्रती की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।जो श्रद्धालु विनायक चतुर्थी का उपवास करते हैं भगवान गणेश उसे ज्ञान और धैर्य का आशीर्वाद देते हैं। ज्ञान और धैर्य दो ऐसे नैतिक गुण है जिसका महत्व सदियों से मनुष्य को ज्ञात है। जिस मनुष्य के पास यह गुण हैं वह जीवन में काफी उन्नति करता है और मनवान्छित फल प्राप्त करता है।
व्रत विधि
भगवान श्री गणेश की प्रसन्नता के लिए प्रतिमाह विनायकी चतुर्थी का व्रत रखा जाता है। जानते हैं इस दिन गणेश कृपा के लिए कैसे करें श्री गणेश की पूजा-अर्चना -
- प्रात:काल स्नान एवं नित्यकर्म से शीघ्र निवृत्त हों।
- मध्यान्ह के समय अपने सामर्थ्य के अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।
- संकल्प मंत्र के बाद षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। इस पूजन में भगवान श्री गणेश को सोलह प्रकार की पूजन सामग्री अर्पित की जाती है। इनमें धूप, दीप, गंध यह शास्त्रों में वर्जित बताया गया है।
- गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाएं। गणेश मंत्र बोलते हुए २१ दुर्वा-दल चढ़ाएं।
ॐ गणाधिपायनम:। ॐ उमापुत्रायनम:। ॐ विघ्ननाशायनम:। ॐ विनायकायनम:। ॐ ईशपुत्रायनम:। ॐ सर्वसिद्धिप्रदायनम:।
ॐ एकदन्तायनम:। ॐ गजवक्त्रायनम:। ॐ मूषकवाहनायनम:। ॐ कुमारगुरवेनम:।
- भगवान गणेश का मंत्र ओम गं गणपतये नम: बोलकर भी दुर्वा चढा सकते हैं। इस मंत्र का १०८ बार जप भी करें।
- गुड़ या बूंदी के २१ लड्डुओं का ही भोग लगाना चाहिए। इनमें से ५ लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाएं और ५ ब्राह्मण को प्रदान कर दें। शेष लड्डू प्रसाद रूप में बांट दें।
- पूजा में भगवान श्री गणेश स्त्रोत, अथर्वशीर्ष, संकटनाशक स्त्रोत आदि का पाठ करें। यह स्त्रोत जानने के लिए इस साईट के पूजन सेगमेंट में क्लिक करें।
-ब्राह्मण भोजन कराएं और उन्हें दक्षिणा प्रदान करने के पश्चात् संध्या के समय स्वयं भोजन ग्रहण कर सकते हैं। संभव हो तो उपवास करें। व्रत का आस्था और श्रद्धा से पालन करने पर श्री गणेश की कृपा से मनोरथ पूरे होते हैं और जीवन में निरंतर सफलता प्राप्त होती है।
Sunday, March 9, 2014
ॐ नमह शिवाय
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
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ॐ नमह शिवाय ॐ
Wednesday, February 26, 2014
ॐ श्री हरि: महाशिवरात्री
ॐ श्री हरि: महाशिवरात्री: शिव सबसे क्रोधी होने के साथ सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले भगवान माने जाते हैं इसीलिए युवतियां अपने अच्छे पति के लिए शिवजी का सोलह स...
महाशिवरात्री
शिव सबसे क्रोधी होने के साथ सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले भगवान माने जाते हैं इसीलिए युवतियां अपने अच्छे पति के लिए शिवजी का सोलह सोमवार का व्रत रखती हैं. हिंदू मान्यता के अनुसार शिव जी की चाह में माता पार्वती ने भी शिव का ही ध्यान रखकर व्रत रखा था और उन्हें शिव वर के रुप में प्राप्त हुए थे. इसी के आधार पर आज भी स्त्रियां अच्छे पति की चाह में शिव का व्रत रखती है और शिवरात्रि को तो व्रत रखने का और भी महत्व और प्रभाव होता है.
इस दिन मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर ‘शिवलिंग’ पर चढ़ाया जाता है. अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर उसे पूजने का विधान है. इसके साथ ही रात्रि के समय शिव पुराण सुनना चाहिए.
यही मानयता है कि शिव भोले हैं और साथ ही प्रलयकारी भी तो अगर आप भी अपने सामर्थ्य के अनुसार ही शिव का व्रत रखते हैं तो आपकी छोटी सी कोशिश से ही भगवान शिव अतिप्रसन्न हो सकते हैं.
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