गुरू पूर्णिमा
भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत ऊंचा स्थान है। माता-पिता के समान गुरु का भी बहुत आदर रहा है और वे शुरू से ही पूज्य समझे जाते रहे है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान समझ कर सम्मान करने की पद्धति पुरातन है। 'आचार्य देवोभव:' का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है। गुरु पूजा के लिए आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को यह विशेष पर्व मनाया जाता है।
गुरु अपने आप में पूर्ण होते हैं। अत: पूर्णिमा को उनकी पूजा का विधान स्वाभाविक है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को हरिशयनी एकादशी होती है। ऐसी मान्यता है कि हरिशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता चार मास के लिए सो जाते है। इसलिए हरिशयनी एकादशी के बाद पथ प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है।
पथ प्रदर्शक है गुरु!
परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते है। इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध है। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तदनुकूल उज्जवल और उदात्त हुआ करती थी। सादा जीवन, उच्च विचार गुरुजनों का मूल मंत्र था। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय था। लोक हित के लिए आपने जीवन का बलिदान कर देना शिक्षा का आदर्श है।
प्राचीन काल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह का ज्ञान देते थे लेकिन आज वक्त बदल गया है। आजकल विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा देने वाले शिक्षक को और लोगों अध्यात्मिक ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता है। शिक्षक कई हो सकते है लेकिन गुरु एक ही होते है। हमारे धर्मग्रंथों में गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी अमृत का संचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे वही गुरु है। यह जरूरी नहीं है कि हम किसी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाएं। योग दर्शन नामक पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण को जगत गुरु कहा गया है क्योंकि महाभारत के युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था।
माता-पिता केवल हमारे शरीर की उत्पत्ति के कारण है लेकिन हमारे जीवन को सुसंस्कृत करके उसे सर्वाग सुंदर बनाने का कार्य गुरु या आचार्य का ही है। इसी कृतज्ञता की भावना से गुरु का पूजन करने तथा उन्हे संतुष्ट करने का विधान है।
व्रत का विधान
इसी उदात्त परंपरा की याद दिलाने के लिए वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा आती है। यह आषाढ़ी पूर्णिमा को मनाई जाती है। वैसे तो प्रतिदिन देवतुल्य गुरु की पूजा करनी चाहिए, उनमें सदा श्रद्धा, भक्ति रखनी चाहिए किंतु पूर्णिमा के दिन गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति का प्रदर्शन विशेष रूप से करना चाहिए। इस दिन प्रात:काल शांत चित्त से अपने गुरु का स्मरण करते हुए गुरु पूर्णिमा व्रत का संकल्प करें। इस दिन अपने गुरु के पास जाकर उनका अर्चन, वंदन और सम्मान करना चाहिए। इस दिन अपने गुरु से आशीर्वाद, उपदेश और भविष्य के लिए निर्देश ग्रहण करना चाहिए। यदि आपके गुरु आपसे दूर रहते हों या दिवंगत हों या आपने भगवान को ही अपना गुरु मान लिया हो तो उनके चित्र या पादुका को उच्च स्थान पर रख कर, लाल, पीला और सफेद तीन रंगों के कपड़े बिछाकर विराजित करे, लाल स्नेह, पीला समृद्धि और श्वेत शांति का प्रतीक है। ये तीनों ही जीवन में परम आवश्यक है। गुरु के चित्र या पादुका को धूप, दीप, पुष्प, अक्षत, चंदन, नैवेद्य आदि से पूजन करे। गुरु स्त्रोत का पाठ करे और श्रद्धापूर्वक गुरु का स्मरण करे।
वेद व्यास जी ने वेद, उपनिषद् और पुराणों का प्रणयन किया है। इसलिए वेद व्यास जी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि वेद व्यास जी का जन्म भी इसी दिन हुआ था । इसलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहते है। आज के दिन व्यास जी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित शास्त्रों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए।
वेद व्यास जी की रचनाओं में महाभारत सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसे पांचवां वेद भी कहा जाता है। यह मानव जाति और समाज का वृहत विश्व-कोश है। विश्वविख्यात श्रीमद्भागवत गीता महाभारत के ही अंग रूप में है। आज के दिन इसी महान ग्रंथ के रचयिता व्यास जी का नमन और पूजन किया जाता है।
इसे विदेशों में भी श्रद्धा से मनाते हैं
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